Natasha

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राजा की रानी

इस बारे में तुम्हें सावधान नहीं किया कि वैष्णवी का जाल तोड़कर अचानक बाहर नहीं जाया जा सकता?”


हँसते हुए बोला, “हाँ, यह भी कहा है।”

वैष्णवी हँस पड़ी। बोली, “नवीन होशियार माँझी है। उसकी बातें न मानकर अच्छा नहीं किया।”

“क्यों भला?”

वैष्णवी ने इसका जवाब नहीं दिया। गौहर को दिखाते हुए कहा, “गुसाईं ने कहा था कि नौकरी करने के लिए विदेश जा रहे हो। पर तुम्हारे तो कोई नहीं है, फिर नौकरी क्यों करोगे?”

“तब क्या करूँ?”

“हम जो करती हैं। गोविन्दजी का प्रसाद तो कोई छीन नहीं सकता!”

“यह जानता हूँ। पर वैरागगीरी मेरे लिए नयी नहीं है।”

वैष्णवी ने हँसकर कहा, “समझती हूँ। शायद प्रकृति सहन नहीं करती?”

“नहीं, ज्यादा दिन सहन नहीं करती।”

वैष्णवी होठ दबाकर हँसी। बोली, “तुम्हारा काम अच्छा है। भीतर आओ, उन लोगों से तुम्हारा परिचय करा दूँ। यहाँ कमलों का वन है।”

“सुना है, पर अंधेरे में लौटेंगे कैसे?”

वैष्णवी फिर हँसी, बोली, “अंधेरे में हम लौटने ही क्यों देंगी? अन्धकार दूर तो होगा ही। तब जाना। आओ।”

'चलो।”

वैष्णवी ने कहा, “गौर! गौर!”

“गौर-गौर” कहते हुए मैंने भी अनुसरण किया।
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हालाँकि धर्माचरण में मेरी रुचि और विश्वास नहीं है, किन्तु जिनका विश्वास है उनको बाधा नहीं पहुँचाता। मन में बिना संशय के जानता हूँ कि मैं इस गुरुतर विषय का ओर-छोर कभी न खोज पाऊँगा। तथापि, धार्मिकों की मैं भक्ति करता हूँ। विख्यात स्वामीजी और सुख्यात साधूजी- किसी की भी छोआ नहीं कहता, दोनों की ही वाणी मेरे कानों में समान मधु की वर्षा करती है।

विशेषज्ञों के मँह से सुना है कि बंगाल की आध्यातत्मिक साधना का निगूढ़ रहस्य वैष्णव सम्प्रदाय में ही सुगुप्त है, और यही बंगाल की खालिस अपनी चीज है। इसके पहले सन्यासी और साधुओं की थोड़ी-बहुत संगत की है। फल-लाभ का विवरण जाहिर करने की इच्छा नहीं है। पर इस दफा अगर दैवात् खालिस चीज नसीब होती हो तो संकल्प किया कि इस मौके को व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। पूँटू के बहू-भात के निमन्त्रण में मुझे जाना ही होगा। कम-से-कम कलकत्ते के नि:संग मैस के बदले ये कई दिन अगर इस वैष्णवी-अखाड़े के आसपास कहीं काटने पड़ें तो और चाहे जो हो, जीवन के संचय में विशेष नुकसान न होगा।

अन्दर आकर देखा कि कमललता का कहना झूठ नहीं था। वहाँ वाकई कमलों का ही वन है, पर दलित-विदलित। मत्त हाथियों से साक्षात तो नहीं हुआ, पर उनके बहुत से पदचिह्न विद्यमान थे। नाना उम्र और तरह-तरह के चेहरों की वैष्णवियाँ नाना कामों में लगी हुई हैं- कोई लड्डू बना रही है, कोई मैदा गूँधा रही है, कोई फल-मूल तराश रही हैं- यह सब ठाकुरजी के रात के भोग की तैयारियाँ हैं। एक अपेक्षाकृत छोटी उम्र की वैष्णवी ध्यारनमग्न हो फूलों की माला गूँथ रही है और एक उसी के निकट बैठी हुई नाना रंग के छपे हुए छोटे-छोटे कपड़ों के टुकड़े सावधानी से कुंचित करके ढंग से रख रही है। सम्भवत: श्रीगोविन्दजी कल स्नान के बाद उन्हें पहनेंगे। कोई भी खाली नहीं है। उनका काम में आग्रह और एकाग्रता देखकर आश्चर्य होता है। सबने मेरी ओर ताका, पर निमेष-मात्र के लिए। कुतूहल का अवसर नहीं है। सबके होठ हिल रहे हैं, शायद मन ही मन जप हो रहा है। इधर समय खत्म हो गया है। एक-एक करके दिये जलने शुरू हो गये हैं। कमललता ने कहा, “चलो भगवान को नमस्कार कर आयें। किन्तु, अच्छा, यह तो बताओ कि तुम्हें क्या कहकर पुकारूँ? 'नये गुसाईं' कहकर पुकारूँ तो कैसा?”

¹ 'गौर' का मतलब यहाँ गौरांग-महाप्रभु या चैतन्यदेव से है।

मैंने कहा, “क्यों नहीं पुकारतीं? तुम्हारे यहाँ जब गौहर तक 'गौहर गुसाईं' हो गया है, तब मैं तो कम-से-कम ब्राह्मण का लड़का हूँ। पर मेरे अपने नाम ने क्या बुराई की है? उसी के साथ 'गुसाईं' जोड़ दो न।”

कमललता ने होठ दबाकर हँसते हुए कहा, “यह नहीं होगा ठाकुर, नहीं होगा। वह नाम मैं नहीं ले सकती- अपराध होता है। आओ।”

“आता हूँ, पर अपराध किसका?”

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